Best Surdas Ke Dohe | 10 सूरदास दोहे

Surdas ke dohe – सूरदास के दोहे

Surdas ke Pad

दोहा 1

Surdas ke dohe
Surdas ke dohe | Surdas ke pad

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मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ।

मोसौं कहत मोल कौ लीन्हौ, तू जसुमति कब जायौ?

कहा करौं इहि के मारें खेलन हौं नहि जात।

पुनिपुनि कहत कौन है माता, को है तेरौ तात?

गोरे नन्द जसोदा गोरी तू कत स्यामल गात।

चुटकी दैदै ग्वाल नचावत हँसतसबै मुसकात।

तू मोहीं को मारन सीखी दाउहिं कबहुँ खीझै।

मोहन मुख रिस की ये बातैं, जसुमति सुनिसुनि रीझै।

सुनहु कान्ह बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत।

सूर स्याम मौहिं गोधन की सौं, हौं माता तो पूत॥

अर्थ: इस दोहे में श्रीकृष्ण अपनी मां यशोदा से शिकायत करते हैं कि उनके बड़े भाई बलराम उन्हें बहुत चिढ़ाते हैं। वे अपनी मां से कहते हैं कि तुमने मुझको पैसा देकर ख़रीदा है, मुझे जन्म नहीं दिया है। इसलिए मैं बलराम के साथ खेलने नहीं जाऊंगा।

बलराम बार-बार श्री कृष्ण से पूछते हैं कि तुम्हारे असली माता पिता कौन है? वह मुझसे कहते हैं कि नंद बाबा और मैया यशोदा गोरे हैं पर मैं काला कैसे हूं? वह बार-बार ऐसा बोल कर नाचते हैं। सभी ग्वाले भी यह बात सुनकर हंसते हैं।

मां! तुम केवल मुझे ही मारती हो, दाऊ (बलराम) को कभी नहीं मारती हो। तुम शपथ लेकर बताओ कि मैं तुम्हारा पुत्र हूं। कृष्ण की यह सभी बातें सुनकर मां यशोदा को बहुत आनंद आता है। Surdas ke dohe

दोहा 2

मुखहिं बजावत बेनु धनि यह बृंदावन की रेनु।

नंदकिसोर चरावत गैयां मुखहिं बजावत बेनु॥

मनमोहन को ध्यान धरै जिय अति सुख पावत चैन।

चलत कहां मन बस पुरातन जहां कछु लेन देनु॥

इहां रहहु जहं जूठन पावहु ब्रज बासिनि के ऐनु।

सूरदास ह्यां की सरवरि नहिं कल्पबृच्छ सुरधेनु॥

अर्थ: यह दोहा राग सारंग पर आधारित है | इस दोहे में सूरदास कहते हैं कि ब्रज की भूमि धन्य हो गई है क्योंकि नंद पुत्र श्री कृष्ण अपनी गायों को यहां चढराते हैं और वे बांसुरी बजाते हैं। मनमोहन अर्थात श्री कृष्ण का ध्यान करने से मन को परम शांति मिलती है। मन को प्रभावित करते हुए सूरदास जी कहते है कि हे मन! तू काहे इधर उधर भटकता है । ब्रज में ही रहकर ,व्यवहारिकता से परे रहकर सुख की प्राप्ति होती है । यहां न किसी से लेना है ना किसी को देना है । सब ईश्वर के प्रति ध्यान मग्न हो रहे है । वे अपने मन से ब्रज में ही रहने को कहते हैं।

यहां पर सभी को सुख शांति मिलती है। यहां पर सभी अपनी अपनी धुन में रमे हुए हैं। किसी को किसी से कोई लेना देना नहीं है। वे कहते हैं कि ब्रज में रहकर ब्रजवासियों के झूठे बर्तनों से उन्हें कुछ भोजन प्राप्त हो जाता है जिससे वे संतुष्ट रहते हैं। ब्रजभूमि की समानता कामधेनु भी नही कर सकती । Surdas ke pad

दोहा 3

चरन कमल बंदौ हरि राई

जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै आंधर कों सब कछु दरसाई॥

बहिरो सुनै मूक पुनि बोलै रंक चले सिर छत्र धराई

सूरदास स्वामी करुनामय बारबार बंदौं तेहि पाई

अर्थ: इस दोहे में सूरदास ने श्री कृष्ण की महिमा का वर्णन किया है। सूरदास के अनुसार श्री कृष्ण की कृपा होने पर लंगड़ा व्यक्ति भी पर्वत को लाँघ लेता है । बहरे व्यक्ति को सब सुनाई देने लगता है, गूंगा व्यक्ति बोलने लग जाता है और गरीब व्यक्ति अमीर बन जाता है सूरदास कहते हैं कि प्रभु के चरणों में मैं बार-बार नमन करता हूं। Surdas ke dohe

दोहा 4

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अबिगत गति कछु कहति आवै।

ज्यों गूंगो मीठे फल की रस अन्तर्गत ही भावै॥

परम स्वादु सबहीं जु निरन्तर अमित तोष उपजावै।

मन बानी कों अगम अगोचर सो जाने जो पावै॥

रूप रैख गुन जाति जुगति बिनु निरालंब मन चकृत धावै।

सब बिधि अगम बिचारहिं तातों सूर सगुन लीला पद गावै॥

अर्थ इस दोहे में सूरदास कहते हैं कि कुछ बातें ऐसी होती हैं जिसे मन ही समझ सकता है। जिस प्रकार एक गूंगे को मिठाई खिलाने पर वह उसके स्वाद का वर्णन नहीं कर सकता है परंतु उसका मन उस भाव को समझ सकता है।

ठीक उसी तरह निराकार ब्रह्म ईश्वर का ना कोई रूप होता है, ना गुण। वहां पर मन स्थिर नहीं हो सकता है। श्री कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन करने पर सूरदास को जो आनंद मिलता है उसे सिर्फ उसका मन ही समझ सकता है। वे उस आनन्द का  वर्णन नहीं कर सकते हैं। Surdas ke pad

दोहा 5

चोरि माखन खात चली ब्रज घर घरनि यह बात।

नंद सुत संग सखा लीन्हें चोरि माखन खात॥

कोउ कहति मेरे भवन भीतर अबहिं पैठे धाइ।

कोउ कहति मोहिं देखि द्वारें उतहिं गए पराइ॥

कोउ कहति किहि भांति हरि कों देखौं अपने धाम।

हेरि माखन देउं आछो खाइ जितनो स्याम॥

कोउ कहति मैं देखि पाऊं भरि धरौं अंकवारि।

कोउ कहति मैं बांधि राखों को सकैं निरवारि॥

सूर प्रभु के मिलन कारन करति बुद्धि विचार।

जोरि कर बिधि को मनावतिं पुरुष नंदकुमार॥

अर्थ इस दोहे में सूरदास कहते हैं कि ब्रज के घर घर में यह बात फ़ैल गई है कि श्रीकृष्ण अपनी सखाओं के साथ चोरी करके मक्खन खाते हैं। कुछ ग्वालिन आपस में चर्चा करती हैं कि कुछ देर पहले श्री कृष्ण उनके घर आए थे। एक ग्वालियर बोली कि मुझे दरवाजे पर खड़ा देखकर वह भाग गए। एक अन्य ग्वालिन कहती है कि कैसे मैं श्रीकृष्ण को अपने घर देखूं।

कैसे मैं उन्हें और स्वादिष्ट मक्खन खाने को दे सकूं, वे किसी तरह मेरे घर आ जाएं। एक दूसरी ग्वालिन कहती है कि यदि वह कन्हैया को देख ले तो गोदी में उठा ले और प्यार करने लगे। एक अन्य ग्वालिन कहती है कि यदि कन्हैया उन्हें मिल जाए तो वह उन्हें दोनों हाथों से कसकर बांध ले, जिसे कोई भी छोड़ा ना सके।

सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार सभी ग्वालिन तरह तरह से प्रभु से मिलने की इच्छा व्यक्त करती हैं। कुछ ग्वालिन कहती हैं कि यदि कन्हैया उन्हें दिख जाए तो वे उन्हें पति रूप में स्वीकार कर लेंगी। Surdas ke dohe

दोहा 6

बूझत स्याम कौन तू गोरी।

कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी॥

काहे कों हम ब्रजतन आवतिं खेलति रहहिं आपनी पौरी।

सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी॥

तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी।

सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भुरइ राधिका भोरी॥

अर्थ: इस दोहे में सूरदास ने कहा है कि श्री कृष्ण एक सखी से पूछते हैं कि तुम कौन हो? तुम कहां रहती हो?, तुम्हारी मां कौन है? मैंने तुम्हें ब्रज में कभी नहीं देखा है। तुम्हारी बेटी ब्रज में आकर हमारे साथ क्यों नहीं खेलती है?

सखी नंद के लाला जो चोरी करता है उसे चुपचाप सुनती है। श्री कृष्ण कहते हैं कि हमें खेलने के लिए एक और सखी मिल गई है। श्री कृष्ण श्रृंगार रस के ज्ञाता हैं। वह कृष्ण और राधा की बातों को सुंदर तरह से बताते हैं। Surdas ke dohe

दोहा 7

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मुख दधि लेप किए सोभित कर नवनीत लिए।

घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए॥

चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए।

लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिं पिए॥

कठुला कंठ वज्र केहरि नख राजत रुचिर हिए।

धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख का सत कल्प जिए॥

अर्थ: इस दोहे में सूरदास कहते हैं कि श्री कृष्ण अभी छोटे हैं और यशोदा के घर के आंगन में घुटनों के बल चलते हैं। उनके छोटे हाथों में मक्खन लगा हुआ है। बालक कन्हैया के शरीर पर मिट्टी लगी है। मुंह पर दही लगा है। उनके गाल सुंदर हैं और आंखें चंचल हैं। श्री कृष्ण के माथे पर तिलक लगा हुआ है। उनके बाल घुंघराले हैं।

जब वे घुटने के बल चलते हैं तो उनके घुंघराले बाल उनके गालों पर झूलने लगते हैं जिसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे भंवरा फूल का रस पीकर झूम रहा है। बालक कृष्ण की सुंदरता और भी बढ़ जाती है क्योंकि उनके गले में कंठ हार और सिंह नख पड़ा हुआ है।

सूरदास जी इस दोहे में कहते हैं कि श्री कृष्ण के इस अद्भुत रूप का दर्शन जिसे भी एक बार हो जाता है उसका जीवन सार्थक हो जाता है। उसके लिए सौ युगो तक जीवन जीना भी निरर्थक साबित हो जाता है। Surdas ke dohe

दोहा 8

अरु हलधर सों भैया कहन लागे मोहन मैया मैया।

नंद महर सों बाबा अरु हलधर सों भैया।।

ऊंचा चढी चढी कहती जशोदा लै लै नाम कन्हैया।

दुरी खेलन जनि जाहू लाला रे! मारैगी काहू की गैया।।

गोपी ग्वाल करत कौतुहल घर घर बजति बधैया।

सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कों चरननि की बलि जैया।।

अर्थ: इस दोहे में सूरदास कहते हैं कि बालक कृष्ण यशोदा को मैया, बलराम को भैया और नंद क बाबा कह कर पुकारने लगे हैं। बालक कृष्ण अब बहुत नटखट हो गए हैं। वह तुरंत ही यशोदा की नजरों से दूर हो जाते हैं। इसलिए यशोदा को ऊंचाई पर जाकर कन्हैया कन्हैया की आवाज लगानी होती है। Surdas ke dohe

दोहा 9

मोहिं प्रभु तुमसों होड़ परी।

ना जानौं करिहौ जु कहा तुम नागर नवल हरी॥

पतित समूहनि उद्धरिबै कों तुम अब जक पकरी।

मैं तो राजिवनैननि दुरि गयो पाप पहार दरी॥

एक अधार साधु संगति कौ रचि पचि के संचरी।

सोचि सोचि जिय राखी अपनी धरनि धरी॥

मेरी मुकति बिचारत हौ प्रभु पूंछत पहर घरी।

स्रम तैं तुम्हें पसीना ऐहैं कत यह जकनि करी॥

सूरदास बिनती कहा बिनवै दोषहिं देह भरी।

अपनो बिरद संभारहुगै तब यामें सब निनुरी॥

अर्थ: इस दोहे में सूरदास कहते हैं कि हे प्रभु मैंने तुमसे एक होड़ लगा ली है आपका नाम आपका नाम लेने से पापियों का उद्धार हो जाता है पर मुझे इस बात पर विश्वास नहीं है मैं देखना चाहता हूं कि आप पापियों का उद्धार कैसे करते हो यदि तुमने यदि आपने पापियों का उद्धार करने काहट लिया है तो मैंने भी बात करने का हर्ट किया है देखते हैं कि इस खेल में कौन जीता है मैं आपके कमल जैसे दिखने वाले नेताओं से बचकर पाप की गुफा में छुप कर बैठ गया हूं। Surdas ke dohe

दोहा 10

अब कै माधव मोहिं उधारि।

मगन हौं भाव अम्बुनिधि में कृपासिन्धु मुरारि॥

नीर अति गंभीर माया लोभ लहरि तरंग।

लियें जात अगाध जल में गहे ग्राह अनंग॥

मीन इन्द्रिय अतिहि काटति मोट अघ सिर भार।

पग इत उत धरन पावत उरझि मोह सिबार॥

काम क्रोध समेत तृष्ना पवन अति झकझोर।

नाहिं चितवत देत तियसुत नामनौका ओर॥

थक्यौ बीच बेहाल बिह्वल सुनहु करुनामूल।

स्याम भुज गहि काढ़ि डारहु सूर ब्रज के कूल॥

अर्थ: इस दोहे में सूरदास प्रभु कृष्ण से कहते हैं कि मुझे मेरा उद्धार कर दो। इस संसार में माया रूपी जल भरा हुआ है, लालच रूपी लहरें हैं, कामवासना रूपी मगरमच्छ है, इंद्रियां मछलियों के समान है। मेरे सिर पर अनेक पापों की गठरी रखी हुई है।

मेरे जीवन में कई प्रकार का मोह भरा हुआ है। काम क्रोध की वायु मुझे परेशान करती है। इसलिए प्रभु कृष्ण नाम की नाव मुझे इस माया से बचा सकती है। पत्नी और बेटों का मोह मुझे किसी और तरफ देखने नहीं देता है। इसलिए अब श्री कृष्ण ही मेरा बेड़ा पार कर सकते हैं। Surdas ke pad

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